आज़ादी
बात यहाँ से इसलिए शुरू कर रही हूँ क्यूँकी ये ब्लॉग चालू करते समय करते भी मुझे ये समझ में आ रहा था की यहाँ मैं जैसा और जो चाहूँ वो नहीं कर पाउंगी. मुझे नाम हिंदी और अंग्रेजी दोनों में लिखना था, वो संभव नहीं हुआ. फिर मुझे अपने दूसरे ब्लॉग से मामला अलग रखना था, वो भी संभव नहीं हुआ. हाँ मैं ये कर सकती थी कि एक नया, गुप्त जीमेल अकाउंट बनाती और उससे जुड़ा हुआ एक ब्लॉग शुरू करती. मगर मैंने सोचा कि इतना दुराव छुपाव रखना ही है तो फिर 'फेमिनिस्म' की बात क्या होगी? जो भीतर दबे, गहरे छुपे अर्थ और स्वार्थ हैं उन्हें कुरेदने का ही तो सवाल है. फिर उसे भी यूं छुपा कर करने में क्या तुक हुयी?
मेरे बारे में काफी कुछ मेरी प्रोफाइल में लिखा है. यहाँ इतना ही बता देना मैं ज़रूरी समझती हूँ कि मैं भौतिकी की छात्रा रह चुकी हूँ. मगर उस समय मेरे ज़हन में जो समाज, और दुनिया के बारे में सवाल उठने शुरू हुए, उनके जवाब ढूँढने का सलीक़ा शिक्षा/एजुकेशन की छात्रा बन कर ही आया. उसके बाद इस ब्लॉग तक बात कैसे पहुंची उसकी कहानी कुछ यूं है. पिछले साल के आखिर में मैं अपने पति के साथ कुछ समय के लिए अमरीका आई. यहाँ मैंने एक सेमेस्टर के लिए एक परचा, बिन डिग्री और मार्कशीट के, पढ़ने का तै किया - परचा मज़ेदार और काम का था. (दरअसल सेमेस्टर मई में ख़त्म होगा.) नाम है: 'फेमिनिस्ट इन्क्वाइरी'. मतलब ये, कि जो भी नारीवादी, स्त्रीवादी रिसर्च होती है, जो भी सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में ग़ैर-बराबरी और जेंडर-भेद पर काम होता है, उस में क्या ख़ास बात होती है जो उसे स्त्रीवादी बनाती है, ये समझना. तो इस पर्चे में हमने यही सीखा, यही बात की, कि किस तरह से रिसर्च को नारीवादी बनाया जाये, कैसे उसे भेदभाव, ग़ैर-बराबरी के मुद्दों पर केन्द्रित रखा जाये, उसके विषय और तरीके किस तरह चुने जाएँ, और उन्हें किस तरह लिखा जाये, कैसे सबके सामने पेश किया जाए.
तो इस पर्चे कि पढ़ाई करते-करते मैं सोचने लगी कि क्या ऐसी पढ़ाई, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी, और भारत के वर्तमान राजनैतिक, सामाजिक मसाइल - सब को जोड़ते हुए कुछ बातें हो सकती हैं? लड़कियों, औरतों कि पढ़ाई, उनकी सेहत और स्वास्थ्य, उनके बोलने और चुनने की आज़ादी, उनके अस्तित्व और लेखन और उनकी सोच - ये सब कुछ जो मामले हैं, वो सिर्फ़ सामाजिक विज्ञान की थ्योरी, सिर्फ़ किताबी या अकादमिक नहीं हैं. कम से कम नहीं होने चाहिए. मगर सच ये है कि हमारे देश में इस किस्म की रिसर्च, इस किस्म की पढ़ाई पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, जबकि और देशों में इस पर काफ़ी काम हुआ है. हमने सामाजिक विज्ञान को, समाजशास्त्र को किताबों, कालेजों में बंद कर दिया है. उसे हमने अपने सड़कों, शहरों, स्कूलों में आने ही नहीं दिया. इसमें समाजशास्त्रियों और शिक्षाविदों और टीचरों और नीतियाँ बनाने वालो - सभी कि थोड़ी थोड़ी गलती है. हमने पढ़ाई - स्कूल से कालेज तक कि सारी पढ़ाई - को असल ज़िन्दगी से दूर रखा है. इसीलिए जहाँ ब्रिटेन में उनके समाजशास्त्र या नारीवादी स्कालर्स के पास उनकी वर्तमान समस्याओं पर रौशनी डालने का सामान है, हमारे समाजशास्त्रियों के पास ये सामान और ये समझ नहीं है. और हमारे शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार या शहरीकरण पर नीति बनाने वाले तंत्र, हमारे शिक्षा चलाने वाले तंत्र और हमारे आम लोगों के बीच में कोई सम्बन्ध नहीं है, कोई संवाद नही है, कोई विचारों का लेन-देन नहीं है.
ख़ैर, तो इस सब पर लानत-मलामत करने से सिर्फ़ तो कुछ हो नहीं जायेगा. तो मैंने सोचा कि इन सब मुद्दों पर कोई चर्चा खड़ी की जाये, ज़रा समय लगाया जाये ये सोचने में कि कैसे हम रिसर्च, सामाजिक-नीतियों, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी और नारीवाद को आपस में थोड़ा कहीं जोड़ सकें, करीब ला सकें. ताकि औरतों, लड़कियों की जो असल जिंदगियां हैं उनमें, उन जिंदगियों में दखल देने वाली सरकारी नीतियों और सामाजिक नज़रियों, और जो सामाजिक-विज्ञान या अन्य क्षेत्रों में नारीवादी सोच और रिसर्च विकसित की जाती है, इन सबमे एक ताल-मेल बैठा सकें. नीतियों और रिसर्च को जिंदगियां बेहतर करने में थोड़ा सफ़ल बना सकें.
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